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Showing posts from June, 2018

मायका-"दिल्ली और गर्मी की छुट्टियाँ"

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**"दिल्ली और गर्मी कि छुटियां"** सबकी तरह मुझे भी गर्मी की छुट्टीयां बहुत भाती है और भाए भी क्यों ना जब ज़िन्दगी हज़ार उलझनों के साथ दम घोटने की कोशिश  करती है तो पीहर की हवा सारे दर्द मिटाने की ताकत रखती है और ये एहसास दिलाती है कि "जिंदा हो तुम...अभी भी बहुत कुछ बाकी है तुम में". उस हवा में माँ का प्यार तो पापा का लाड होता है और साथ मे भाई-बहनों के साथ का तकरार...। फिर मेरे पीहर में तो सयुंक्त परिवार की वजह से रिश्तों की और भी खूबसूरत मोतिया थी जैसे चाचा-चाची,बुआ वगैरह। माँ कभी कोई काम नही करने देती थी मायके मेंं पर हजार काम मेरे नाम से रखती..तू आगयी ना तो बाजार चलना मेरे साथ ,नयी चूड़ियाँ आयी हैं आजकल...बच्चो के कपड़े भी ले दूंगी..अच्छे एक दिन तुझे मेरे साथ चाची के घर चलना होगा बहुत याद करती है तुझे... ना जाने ऐसे कितने काम माँ मेरे नाम का रखी रहती और ऐसे ही मिलते-मिलाते छुट्टियाँ खत्म होने लगती पर कुछ अलग होती थी मेरी गर्मी की छुटियां...किश्तों में बटी हुई। समझ ही नही आता कि इन छुटियों के आने पर खुश होजाऊँ या शून्य होजाऊँ...।। माँ हर छुट्टियों में पु

धागा-बंधन

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वो धागा जो  उलझा है मन में हर उलझन को जो जकड़ रखी है पैरों को बेड़ियों की तरह….. मिलता नही है  उसका एक  शिरा जिसे पकड़ मैं  सुलझाऊ जीवन को, और हर रिश्ते को  नए शिरे से। धागा जो बांधे रखेगा  हर रिश्ते को प्यार और स्नेह से, अपनेपन से सुलझ जाए वो जो किसी अपने के साथ से। वो धागा मोहब्बत का जो उलझा है………. वो धागा जो उलझा है मन में… जीवन में….. #preeति You can also read my poetry on my Facebook wall- https://www.facebook.com/unheardPreeti/ I'm on Instagram as @unheardpreeti

तहज़ीब के नाम पर बंदिशे

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  #यूँही ............................................................... ""तहज़ीब के नाम पर बंदिशे लगायी गयी हम लड़कियां है हर बार बात बस यही बतायी गयी। ................................................................... ""पायल की छनकती, शोख़ आवाजें बारिश की बूंदों के साथ अठखेलियां कर रही थी........ बिलकुल बेपरवाह-सी,मगन होकर, स्वच्छंद बढ़े जा रही थी गलियों में जैसे बारिश का पानी बहे जा रहा था बेपरवाह,बेतरतीब सा....... नन्हे-नन्हे कदमो के निशाँ गीली मिट्टी पर मासूमियत छोड़े जा रहे थे और हाथों में कागज की नाव मानो उसके बचपन को पुरा कर रहे थे...। तभी कड़कती रौबदार-सी आवाज़ बारिशों के खिलखिलाहट को चीरते हुवे गूँजी--"छवि अंदर आ, ऐसे "लड़कियों" को बाहर घूमना 'शोभा' नही देता..." और.... "बचपन को समेटते वो अंदर आगयी...............। ‌ #Preeति You can also read my poetry on my Facebook wall- https://www.facebook.com/unheardPreeti/ I'm on Instagram as @unheardpreeti

माँ के चावल और मेरी ख़्वाहिशें

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माँ सालों से चावल चुना करती थी और मैं ख़्वाहिशें माँ उन चावलों को ड्रम में रखा करती थी बड़े जतन से उनमें नीम की पत्तियां मिलाती और भी कई तरीके अपनाती की उसके चुने चावल अगले साल तक महफ़ूज रहे फिर माँ उनसे हर दोपहर तो कभी रात के पहर में थाली में चावल के प्यार परोसती।। और मैं.. मैं भी उन ख़्वाहिशों को जतन से बचपन के बक्शे में तो कभी आंखों में सजा कर रखतीं.. ये सोचकर कि एक दिन मैं भी जिंदगी के थाल में ख़्वाहिशों को हकीक़त बनाकर सजाऊँगी पर ख़्वाहिशों से ज्यादा जरूरतें जिद्दी थी जरूरतें जीतती गयी  और ख़्वाहिशें हारती गयी।। #Preeति You can also read my poetry on my Facebook wall- https://www.facebook.com/unheardPreeti/ I'm on Instagram as @unheardpreeti