मायका-"दिल्ली और गर्मी की छुट्टियाँ"


**"दिल्ली और गर्मी कि छुटियां"**

सबकी तरह मुझे भी गर्मी की छुट्टीयां बहुत भाती है और भाए भी क्यों ना जब ज़िन्दगी हज़ार उलझनों के साथ दम घोटने की कोशिश करती है तो पीहर की हवा सारे दर्द मिटाने की ताकत रखती है और ये एहसास दिलाती है कि "जिंदा हो तुम...अभी भी बहुत कुछ बाकी है तुम में".
उस हवा में माँ का प्यार तो पापा का लाड होता है और साथ मे भाई-बहनों के साथ का तकरार...।
फिर मेरे पीहर में तो सयुंक्त परिवार की वजह से रिश्तों की और भी खूबसूरत मोतिया थी जैसे चाचा-चाची,बुआ वगैरह। माँ कभी कोई काम नही करने देती थी मायके मेंं पर हजार काम मेरे नाम से रखती..तू आगयी ना तो बाजार चलना मेरे साथ ,नयी चूड़ियाँ आयी हैं आजकल...बच्चो के कपड़े भी ले दूंगी..अच्छे एक दिन तुझे मेरे साथ चाची के घर चलना होगा बहुत याद करती है तुझे...
ना जाने ऐसे कितने काम माँ मेरे नाम का रखी रहती और ऐसे ही मिलते-मिलाते छुट्टियाँ खत्म होने लगती
पर कुछ अलग होती थी मेरी गर्मी की छुटियां...किश्तों में बटी हुई।
समझ ही नही आता कि इन छुटियों के आने पर खुश होजाऊँ या शून्य होजाऊँ...।।
माँ हर छुट्टियों में पुछती की कब आओगी...इस बार तो आओगी ना..??
और मैं मज़ाक उड़ाते बोलती की "दिल्ली वाली हूँ ना गांव में नही आना मुझे"..
पर सच तो ये था कि 3सालो से हर बार मैं मन ही मन ना जाने कितनी बार ख्यालों में सूटकेस और बच्चो के साथ ट्रेन में होती।।
3साल से कोई ना कोई रुकावटें थी,ऐसा नही था कि पति जाने नही देते पर कहा ना मैने की "कुछ अलग थी मेरी छुट्टियां".
तो हाँ मायके जाने की पहली शर्त ये थी कि--"अगर हफ़्ता भर तुम मायके में रहती हो तो 2हफ्ते पहले ससुराल में रहना होगा" । और शादी के इतने सालों बाद भी मेरे लिए ये शर्त नही बदली या यूं कह ले कि ये नियम नही बदला।
बस इन्ही किश्तों में बटी छुट्टियों से मन खिन्न सा होजाता था।
ऐसा नही था कि ससुराल में रहना मुझे पसंद नही था पर कहते हैं ना कि "कुछ चीजें बाटने को दिल नही करता" और साल में मिली मुठ्ठी भर छुट्टियों को तो बिल्कुल भी नही बाटना चाहता दिल.."
पर हम "सुहागन बेटियों" के नसीब में कुछ चीजें पत्थर की लकीर-सी होती है जिसे आप चाह कर भी बदल नही सकते...सबका तो नही पता था पर शादी के इन 8-9 सालों के बाद भी मेरे लिए एक "नियम" नही बदला...इस नियम के साथ ही हर बार मायके जाना हुआ मेरा और कभी ऐसा नही हुआ कि मायके में रहूँ और सब भूल जाऊँ.. अगर किसी छुट्टी कदम मायके में पहुँच भी गए तो मन अधूरा ही मायके पहुँचता क्योंकि आधा मन तो उंगलियों पर दिन गिनता की फलां दिन-तारीख़ को ससुराल पहुचना है..!!

पापा हमेशा गुस्सा होते कि आधे-अधूरे दिन लेकर क्यों आती हो? ऐसा भी क्या की माँ-बाप के पास सुकून से रह नही सकती..!! 25साल इसी घर मे पली-बढ़ी हो और अब ये घर 25दिन भी तुम्हे रोक नही पाता..!!

अब पापा को कौन समझाए की ब्याही लड़कियों को सुकून नही रहता..ब्याही लड़कियाँ आधे-अधूरे दिनों के साथ ही पूरा जिया करती हैं..किश्तों में ही सही कुछ छुट्टियाँ वो भी निभा आती हैं। 

#Preeति


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